मायावती का BJP प्रेम या डर....?

मायावती का BJP प्रेम या डर....?

मोहम्मद ज़ाहिद अख़तर 

मायावती का भाजपा से यह नया रिश्ता क्या कहलाता है......?

उत्तर प्रदेश की राजनीति में बेहद अहम किरदार निभाने वाली बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का उत्तर प्रदेश के दलित वर्ग में एक मजबूत पकड़ से इंकार नहीं किया जा सकता़ है। मायावती जिनका पूरा नाम मायावती प्रभु दास है का जन्म 15 जनवरी 1956 को नई दिल्ली में हुआ था। पिता प्रभु दास डाक विभाग में कर्मचारी थे। मायावती ने दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए., बी.एड. और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के लॉ फैकल्टी से एल.एल.बी. की पढ़ाई की।

शिक्षिका के रूप में अपना करियर शुरू करने के बाद उनकी राजनीति में एंट्री कांशीराम के माध्यम से हुई, जो उस समय ‘दलित शोषित समाज संघर्ष समिति’ चला रहे थे। 1984 में जब बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का गठन हुआ, मायावती उसकी संस्थापक सदस्य बनीं। कांशीराम ने उन्हें अपनी राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में तैयार किया। मायावती ने पहली बार 1989 में बिजनौर लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर संसद में प्रवेश किया। 1995 में वह उत्तर प्रदेश की पहली दलित और पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं जिन्होंने 1995, 1997, 2002 और 2007 में कुल चार बार मुख्यमंत्री पद संभाला। 

उनका शासन “कानून व्यवस्था और विकास” पर केंद्रित रहा, लेकिन साथ ही “दलित प्रतीकवाद” और “स्मारक राजनीति” के लिए भी बेहद चर्चित रहा। 2007 में उनके नेतृत्व में पहली बार बसपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई, जो उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी।

मायावती ने “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” के नारे पर केंद्रित अपनी राजनीति करते हुए दलितों, पिछड़ों तथा अल्पसंख्यकों को राजनीतिक आवाज दी। आज वह भारतीय राजनीति में दलित सशक्तिकरण की प्रतीक मानी जाती हैं। 

वर्ष 2012 के उप्र विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के हाथों मिली करारी शिकस्त के बाद मायावती निरंतर उप्र की राजनीति में पिछड़ती ही चलीं गईं। वर्ष 2022 के उप्र विधानसभा चुनाव में मायावती के नेतृत्व में बसपा मात्र एक विधायक ही जीता कर विधानसभा पहुंचाने में सफल हो सकी। मायावती की निरंतर गिरती राजनीति के दो बड़े कारण माने जा सकते हैं। पहला सबसे बड़ा कारण मायावती का अपने कार्यकर्ताओं विषेषकर दलित समुदाय के बीच नहीं जाना। उनकी पीड़ा उनका परेषानी उन पर हो रहे अत्याचार आदि पर कभी कोई अफसोस नहीं जताना। दूसरा कारण अपने कार्यकाल के दौरान हुए घोटालों की जांच से बचने को लेकर उनका विपक्ष की भूमिका नहीं निभाना। दरअसल उनको यह डर सताता रहता है कि कहीं केंद्र की भाजपा सरकार उनके खिलाफ ईडी सीबीआई या आई टी जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल कर जेल में न डाल दें। 

मायावती की राजनीति निष्क्रियता के कारण ही समाजवादी पार्टी ने पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक यानी पीडीए का नारा बुलंद करते हुए कांग्रेस के सहयोग से 2024 के लोकसभा चुनाव में एक सम्मानजनक सांसद लाने में सफलता हासिल की तो वहीं मायावती अपनी पार्टी से एक भी सांसद संसद तक नहीं पहुंचा सकीं। 

बृहस्पतिवार 9 अक्टूबर 2025 को मान्यवर कांशीराम की पुन्यतीथि के दिन उप्र की राजधानी लखनऊ स्थित मान्यवर कांशीराम स्मारक स्थल में 9 साल बाद मायावती ने एक विशाल रैली को संबोधित किया। राजनीति के गलियारों में ऐसा माना जा रहा था कि मायावती की यह रैली न सिर्फ उप्र की राजनीति में एक भूचाल लाने का काम करेगी बल्कि यह भी माना जा रहा था कि मायावती एक बार फिर समाजवादी पार्टी, कांग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी के लिए 2027 के उप्र विधानसभा चुनाव में एक नई चुनौती बन कर उभर सकतीं हैं। रैली में यदि भीड़ की बात की जाए तो यकीनन मायावती ने एक बार तो सपा, कांग्रेस तथा भाजपा के हाथ पैर फुला दिये थे लेकिन जब मायावती ने मंच पर खड़े होकर वहां उपस्थित भीड़ को संबोधित करना शुरू किया तो साफ होने लगा कि आवाज तो मायावती की थी लेकिन सामने डायस पर रखी स्क्रिप्ट कहीं और से लिख कर दी गई थी। 

अपने संबोधन में मायावती ने उप्र की योगी सरकार की जहां जमकर तरीफ की तो वहीं समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव पर जमकर निशाना साधा। जाहिर है बसपा के सामने उसकी सबसे बड़ी चुनौती भाजपा या कांग्रेस नहीं बल्कि समाजवादी पार्टी ही है। 

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव जिस तरह से पीडीए का नारा बुलंद करते हुए उप्र की राजनिति में अपने कदम जमाते देखे जा सकते हैं, वहीं दलितों का एक बड़ा वर्ग मायावती से छिटकर सपा तथा कांग्रेस की तरफ खिंचता नजर आ रहा है। रही सही कसर नगीना से सांसद चंद्रशेखर आजाद दलितों के युवा नेता के रूप में पूरा करते नजर आ रहे हैं।

दरअसल भारतीय जनता पार्टी के लिए आगामी 2027 का उप्र विधानसभा चुनाव सपा और कांग्रेस का गठबंधन सबसे बड़ी चुनौती बनता नजर आ रहा है। ऐसे में सपा का पीडीए को लेकर राजनीति करना तथा कांग्रेस का संविधान बचाओ को लेकर राजनीति करना भाजपा के लिए घातक साबित होता जा रहा है। ऐसे में दलित वोट को छिटकने से रोकने के लिए भाजपा ने प्राॅक्सी राजनीति करते हुए मायावती को मैदान में उतारा है।

मायावती का भाजपा की तारीफों के पुल बांधना, हाल ही में बरेली में हुई घटना का कोई जिक्र तक न करना, रायबरेली में दलित युवक कीे बेरहमी से हत्या करना, दलित आईपीएस द्वारा आत्महत्या करना और इन सबसे बड़ी बात भारत के मुख्य न्यायधीश बीआर गवई पर एक सवर्ण जाति के वकील द्वारा जूता फेंकने जैसी संगीन घटनाओं पर अपनी किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया तक न देना लेकिन सपा-कांग्रेस के साथ-साथ चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी को आड़े हाथों लेना और पानी पी-पी कर कोसना साफ है कि मायावती बसपा की राजनीति को दरकिनार कर केवल अपने बचाव की राजनीति कर रहीं हैं। मायावती और भाजपा के बीच पनपता यह नया रिश्ता क्या कहलाता है उप्र 2027 के विधानसभा चुनाव में दलित इसका किस तरह से इसका जवाब देता है यह देखना काफी दिलचस्प होगा।

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