क्या भारत आज भी गुलाम है?

क्या भारत आज भी गुलाम है?

क्या भारत आज भी गुलाम है?

 भीम सिंह बघेल, विचारक

भारत को औपनिवेशिक सत्ता से मुक्त हुए लगभग 73 वर्ष होने को हैं बरसों गुलामी के उपरांत 1949 में अपना संविधान बनाया क्या यह सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण था? या पूर्ण तौर पर ब्रिटिश द्वारा विस्थापित किए जा चुके भारतीय सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था को पुनः स्वदेशी तरीके से स्थापित करने की कोशिश पर समीक्षा करने का वक्त है।

देखा जाए तो पता चलता है कि दो तरह की विचारधारा निकल कर सामने आती है पहला राष्ट्रवादी विचारधारा दूसरा यूरोपीय केंद्रित विचारधारा आवश्यकता तो इस बात पर थी कि भारत की संपूर्ण व्यवस्था को देशी ढंग से यहां की स्थानिक आवश्यकताओं और परिस्थितियों के मद्देनजर बदला जाना था भारतीय संविधान का अधिकांश भाग ब्रिटिश संवैधानिक सुधार के दौर में स्थापित भारत सरकार अधिनियम 1935 से प्रभावित हैं ऐसे में हम ना केवल ब्रिटिश द्वारा स्थापित किए गए कानून को मान्यता दे रहे होते हैं बल्कि ऐसी चीजों का परिणाम यह हुआ कि भारत की भाषा, परिधान यहां तक कि खानपान  जैसी नियमित दिनचर्या की चीजें प्रभावित हुई। भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भारतीय भाषाओं को मान्यता देता है। जिसमें से अधिकांश भाषा क्षेत्रीय है अंग्रेजी भाषा सभी भाषाओं पर प्रभावी हैं स्कूली शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय तक अंग्रेजी बोलने और पढ़ने वाला व्यक्ति अन्य भारतीय भाषा को बोलने और पढ़ने वाले व्यक्ति से ज्यादा समझदार समझा जाता है।

अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ आ गई लेकिन क्या हम भारतीय संविधान में स्थापित 22 मान्य भाषाओं का पूर्ण सम्मान कर पा रहे हैं शायद ही ऐसा हो रहा हो उदाहरण के तौर पर उत्तर भारत का यदि कोई व्यक्ति दक्षिण भारत के राज्य जैसे कि कर्नाटक में जाता है तो कन्नड़ नहीं बोल पाता तो अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करता है जिसका परिणाम यह होता है कि वह हिंदी भाषा का क्षरण कर रहा होता है वहीं दूसरी तरफ कन्नड़ भाषा को जानने तथा वहां के लोगों से घुलने मिलने से वंचित रह जाता है ऐसा ही दक्षिण भारतीय राज्य का व्यक्ति उत्तर भारत में आकर हिंदी सीखने से बचता है जिससे राष्ट्रीय एकता को तो चुनौती मिलती ही है साथ में भारत के लोग भारत में ही विदेशीयों जैसे हो जाते हैं इसी तरह पहनावा में भी ऐसी पहनावा चाहते हैं जिसके सार्वत्रिक मान्यता हो व्यक्ति सामाजिक विशिष्टता से बचना चाहता है तथा पारंपरिक और क्षेत्रीय वेशभूषा का परित्याग करता जा रहा है जिसका परिणाम यह हुआ कि वह अपने संस्कृतियों की जड़ों से ना केवल कटता जा रहा है बल्कि भारत की पहचान बहुसांस्कृतिक की  रही है से विमुख होता जा रहा है जिससे समाज के  बहुसंस्कृतिवाद रूपी ताने-बाने को नुकसान पहुंच रहा है इसी तरह भोजन संबंधी प्रवृत्ति भी देखी जाती हैं जैसे दक्षिण भारत के खाने में इडली, सांभर, दोसा, उथप्पम इत्यादि जैसे खाने में बहुलता होती है उत्तर भारत का व्यक्ति दक्षिण भारत में जाता है तो कॉन्टिनेंटल खाने की मांग करता है जिससे उसके खाने के साथ जो संबंध स्थापित होना चाहिए था उससे वंचित ही रहता है बल्कि अपने खाने के तौर तरीके दक्षिण में भी प्रसारित करने में विफल रहता है इस तरह दोनों क्षेत्रीय प्रवृत्तियों का नाश होता है तथा बाहरी विदेशी संस्कृति के उपयोग में वृद्धि होती हैं और देश में रहने वाले लोग आपस में एक दूसरे को समझने से बातचीत रहते हैं इसके परिणाम स्वरूप क्षेत्रवाद, भाषावाद का विकास होता है तथा बहुसंस्कृतिवाद का नाश होता है शिक्षा व्यवस्था से यह उम्मीद ठीक ही यह बदलाव लाएगा लेकिन मैकाले शिक्षा व्यवस्था की विदेशी बांधा विद्यमान है। चीन में मेडिकल शिक्षा मंदारिन और जापान में जापानी और अंग्रेजी दोनों भाषा में उपलब्ध रहता है लेकिन भारत में फेफड़े को फुफ्फुस यदि कोई छात्र पढ़ देता है तो उसे हंसी का पात्र समझा जाता है जब ऐसे देश अपनी स्थानीय देशी चीजों का उपयोग कर देश के निर्माण और राष्ट्रवाद की भावना प्रबल करते हैं वही भारत अपने भारतीय भाषाओं के महत्व को खोता जा रहा है  और विदेशी अनुसंधान और विकास पर आश्रित होता जा रहा है स्थानीय स्तर पर होने वाले अनुसंधान और विकास को कमजोर करके बौद्धिक संपदा अधिकार और पेटेंट हासिल करने से वंचित रह जाता है।

 भारत आज भी राष्ट्रमंडल समूह का हिस्सा है जो ब्रिटेन की औपनिवेशिक सत्ता का संगठन है जहां तक आर्थिक विषयों का प्रश्न है भारतीय समाज में नव धनाढ्य ब्रांड लेना पसंद करता है जिसका अंतिम लाभ विदेश में स्थापित उस कंपनी को जाता है स्वतंत्रता से 1991 तक समाजवादी व्यवस्था और 1991 से खुली अर्थव्यवस्था का बाजार जोकि पूंजीवादी व्यवस्था के लक्षण हैं इन दो व्यवस्थाओं के बीच भारत एक मिश्रित अर्थव्यवस्था को स्थापित करता है पीपीपी मॉडल(public private partnership) पर पुनः विचार जैसे प्रश्न हैं ताकि स्थानीय और विदेशी निवेशकों में भारतीय आर्थिक व्यवस्था की सुनिश्चिता को पैदा किया जा सके गुलामी से पूर्व की अर्थव्यवस्था को पता करने पर भारतीय अर्थव्यवस्था यूरोपियों की अर्थव्यवस्था से काफी आगे था विदेशियों के वेल्थ बहाव का ही परिणाम था जिससे देश में गरीबी और भुखमरी पैदा हुई।

इस तरह कहा जा सकता है कि भारत का विकास भारत की जरूरतों और संसाधनों के साथ यहां की परिस्थितियों के अनुसार करने पर बल देना चाहिए भारत के नागरिकों को चाहिए कि यूरोप केंद्रित अप्रोच से बाहर आए और भारतीय वस्तुओं, वस्त्रों, खान-पान यहां तक की देशी अनुसंधान और विकास मे किए गए कार्यों पर गर्व करने की प्रवृत्ति को विकसित करने की आवश्यकता है।


                    


Comments

Leave A Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *