स्वास्थ्य सेवा पर भारतीय नजरिया का मूल्यांकन

स्वास्थ्य सेवा पर भारतीय नजरिया का मूल्यांकन

स्वतंत्र लेखक

भीम सिंह बघेल

स्वास्थ्य सेवा पर भारतीय नजरिया का मूल्यांकन

देश वर्तमान में कोविड-19 की दूसरी लहर से लगभग उबर चुका है कोविड-19 की दूसरी लहर ने भारत की स्वास्थ्य सेवाओं का लिटमस टेस्ट किया स्वास्थ सेवाओं के आधारभूत संरचना तथा उसके मानव संसाधन की आवश्यकता के अलावा एलोपैथिक बनाम आयुर्वेदिक ज्ञान के जंग में भारत की इलाज व्यवस्था यूरोप केंद्रिय होनी चाहिए या अपने पारंपरिक ज्ञान को समृद्ध करने की आवश्यकता है। ऐसे द्वंद के बीच समझने का प्रयास करते हैं कि अभी तक भारत में स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के क्या मायने रहे हैं।

निर्धनता के साथ-साथ स्वास्थ्य संबंधी चर एक चुनौतीपूर्ण विषय वस्तु रहा है। खासकर तृतीय विश्व के देशों में भारत में संविधान निर्माण के साथ ही बेहतर जीवन स्वास्थ्य जैसे पहलुओं को प्राथमिकता दी गई परंतु यह विडंबना है कि 70 वर्ष प्रजातांत्रिक परिपक्वता के बावजूद स्वास्थ्य को लेकर वांछनीयता की स्थिति अब भी कायम है ।

आर्थिक प्रगति के सकारात्मक दौर के बावजूद विकास परियोजना के अंतर्गत तुलनात्मक रूप से सामाजिक सूचकांक पीछे छूटते नजर आते हैं जिसके ओर सामाजिक नीति व कार्यक्रमों की दिशा प्रतिबंध आधार पर मोड़ें जाने की जरूरत है।

 स्वास्थ्य को व्यक्तियों की योग्यता और अयोग्यता के संदर्भ के अनुसार देखने की कोशिश की गयी है। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य को शारीरिक, मानसिक, सामाजिक संदर्भ में देखने की कोशिश की यह याद रखना है कि स्वास्थ्य निर्धनता के भांति सामाजिक मुद्दा है।

व्यक्तियों का जीवन स्तर काफी हद तक समाज के संसाधनों का पुनः वितरण वह तकनीकी पर निर्भर करता है अर्थात संस्कृति समाज में स्वास्थ्य की परिभाषा वह विन्यास को प्रभावित करती है। जिसके मायने अलग-अलग समय में भिन्न भिन्न हो सकते हैं साथ ही साथ सामाजिक असमानता भी स्वास्थ्य को प्रभावित करती है जैसे-जैसे समाज का उदविकास होता गया स्वास्थ्य और उसके प्रति  प्रतिउत्तर के मायने भी बदलें तथा आज आधुनिक समाज में विशेषीकृत  स्वास्थ्य संस्थाओं का विकास हुआ है।

जिसमें वैज्ञानिक औषधि वह जैवऔषधि का परिपेक्ष महत्वपूर्ण है। जैवऔषधि  के विपरीत समावेशी औषधि की अवधारणा का विकास हुआ जो एक नए परिदृश्य पर बल दिया यद्यपि वह वैज्ञानिक दवाओं, सर्जरी तकनीकों के प्रयोग की प्रासंगिकता को मानते हैं ।  मरीज व्यक्ति हैं स्वास्थ के प्रति उत्तरदाई हैं केवल बाहरी शंकाओं के ऊपर निर्भर नहीं है इसके मूल केंद्र में स्वास्थ्य के प्रति सक्रिय उपागम न की बीमारी के प्रति प्रतिक्रियावादी उपागम की मानसिकता अभिव्यक्त हो‌।

औषधि का प्रारूप चाहे कोई भी रहा हो आज राज्य व सरकार के उत्तरदायित्व के रूप में प्रबल हुई है। इसी संदर्भ में लोक स्वास्थ्य की अवधारणा का विकास हुआ है। संवैधानिक स्तर पर स्वास्थ्य को मान्यता तो दी गई है बृहद तौर पर परिणाम सांकेतिक रहे हैं 2009 में स्वास्थ्य को लेकर राष्ट्र नीति का निर्माण हुआ भारत का लोक स्वास्थ्य मैं कई अवधियो का दौर रहा है । 1880 से 1920 तक बीमारी नियंत्रण का दौर था 1920 से 1960 तक का दौर स्वास्थ्य प्रचार या उसे बढ़ावा देने का था 1960 से 1980 का दौर सामाजिक अभियांत्रिकी का दौर रहा है 1980 से 2000 के संदर्भ में सभी को स्वास्थ्य का आयाम उभरा तथा कई कार्यक्रमों की घोषणाएं हुई जैसे एनआरएचएम, जेएसवाई, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना, जन स्वास्थ्य कार्यक्रम इत्यादि। जन स्वास्थ्य बिल के माध्यम से स्वास्थ्य को अधिकार के रूप में रखने की कोशिश शुरू हुई 1910 में विश्व परिपेक्ष में सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल की अवधारणा प्रबल हुई तथा भारत में भी कई तबको से मांग उठे कि आर्थिक वृद्धि जननांकि  निवेश का वातावरण सकारात्मक आधार पर भारत में निर्मित हुआ है। उसे और दक्ष और बेहतर दिशा प्रदान की है तो सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल भारत में भी बेहतर आधार पर लागू की जाए।

 स्वास्थ्य के प्रति लोक नीति के साथ-साथ निजी क्षेत्र की भागीदारी व्यापक हुई है। लोकनीति सहचारिता का प्रारूप निर्मित हुआ है परंतु आज भी  कई चुनौतिया देखी जा सकती हैं

अमर्त्य सेन के शब्दों में भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था को इस विचार या दृष्टि से बाहर निकलना होगा कि हाल के वर्षों में इसकी स्थिति ज्यादा सकारात्मक हुई। राष्ट्रीय स्वास्थ्य व्यवस्था के अंतर्गत निजी सहभागिता को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है परंतु यह भी सुनिश्चित करना होगा कि नियंत्रण कायम रहे औषधियों का मूल्य पर नियंत्रण एक महत्वपूर्ण अंग होगा

लोक निजी सहचारिता का तथ्य है कि लागत व गुणवत्ता के संबंध में लोक निजी प्रासंगिकता ज्यादा प्रबल है जरूरत है स्वास्थ्य निदेशक आयाम को मोड़ने की क्योंकि सरकार के द्वारा जो निवेश प्रारूप लागू किया जा सकता है वह अन्य प्रारूप से नहीं स्वास्थ्य नीति में मानवीय संसाधनों में वृद्धि की आवश्यकता है साथ-साथ तकनीकी दक्षता के साथ साथ सुक्षमता से नियंत्रण की आवश्यकता है यह भी आवश्यक है कि जीवन रक्षक औषधि के संदर्भ में वह व्यक्ति भुगतान कर पाने में असक्षम हैं तो इसके अभाव में मृत्यु की ओर अग्रसर ना हो ।

एक अन्य सुझाव यह भी है कि लोक स्वास्थ्य में कार्यरत मानव संसाधन तथा प्रबंधन व्यवस्था को मिश्रित करना कहीं ना कहीं इलाज की गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं उपचार में लगे मानव संसाधनों को प्रबंधन में प्रयोग करने से उपचारात्मक गुणवत्ता में गिरावट आती हैं जहां प्रबंधन की स्किल का अभाव देखा जाता है इसके लिए अलग से प्रबंधन तंत्र का विकास किया जाए जिससे उपलब्ध संसाधनों की कार्यक्षमता में वृद्धि की जा सकती हैं बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में आधारभूत संरचनाओं की उपलब्धता तथा मानव संसाधन की दक्षता भारतीय परिप्रेक्ष्य में एक बड़ी चुनौती रही हैं स्वास्थ्य राज्य का विषय हैं जहां राज्यों के पास पर्याप्त संसाधनों का अभाव होता है वहां पर स्वास्थ्य सेवा विकसित नहीं हो पाते हैं ऐसे में सहयोगात्मक संघवाद स्वास्थ्य सेवा के विकास में अपने अहम भूमिका निभा सकता है। जहां अमेरिका जैसे देश अपने जीडीपी का  स्वास्थ्य पर लगभग 17% खर्च करते हैं वहीं भारत अपने जीडीपी का लगभग 1.5%  खर्च करता है मानव संसाधन के विकास में सरकारी नियंत्रण पर विचार करना चाहिए विश्व स्वास्थ संगठन प्रति 1000 मरीज पर एक डॉक्टर की उपलब्धता का मानक देता है भारत में लगभग 1456 के लगभग है।

महामारी के इलाज के दौरान बहुत सारे मध्यम वर्ग के लोग अपने इलाज खर्च के दौरान गरीबी रेखा में चले गए होंगे  साथ ही बेरोजगारी भी बढ़ने की आशंका जताई जा रही हैं आय की कमी के कारण पोषण युक्त भोजन का अभाव हो जाता है जिससे बीमारियां होने लगती हैं कोविड के अलावा अन्य बीमारियां  इलाज का इंतजार कर रही होंगी इस तरह से देखा जाए तो देश का लोक स्वास्थ्य चौतरफा दबाव का सामना करेगा

इससे निपटने के लिए तात्कालिक नीति तथा दीर्घकालीन नीतियों पर नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है जिससे इतनी बड़ी जनसंख्या को स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराई जा सके।

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