पुरस्कार देव की व्यथा .....( एक व्यंग्य )

पुरस्कार देव की व्यथा .....( एक व्यंग्य )

पुरस्कार देव की व्यथा .....( एक व्यंग्य )


मैं पुरस्कार हूँ ....मेरा इतिहास बहुत पुराना है ...मैं सदियों से लोगों के मेहनत और लगन के बदले दिया जाता रहा हूँ ....मुझे प्राप्त करने वाले फूले नहीं समाते थे ....बड़े बड़े महफिलों की वो लोग शोभा बनते थे और जिस राह से भी गुजर जाते थे ...लोग उनके लिए आँखे बिछाए मिलते थे ....पर आजकल ....आजकल तो मेरी #अहमियत घटती जा रही है .....ख़ासकर साहित्यिक क्षेत्र के लोगों ने मेरी स्थिति ऐसी क़र दी है की .....लोगों के घरों में #अखबार की रद्दी से ज्यादा मेरी रद्दी नजर आने लगी है ...मुझे बाटने वाले के पास भी कोई #आपा ( लिमिट )  नहीं फिर मुझे प्राप्त करने वाले भी अनेकों मिल जाते हैं ....कुछ तो मुझे पाकर भी नहीं समझ पाते कि मैं उन्हें मिला तो क्यों मिला ....आखिर उनका योगदान क्या था .....पर वो भी इंसानी फ़ितरत के चलते ...खुद को बहुत बड़ा साहित्यकार सिद्ध करने की जुगत में लग जाते हैं .....और एक साहित्यिक व्यक्तित्व का भ्रूण हत्या हो जाती हैं ....क्योंकि उनको लगने लगता है अब उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं लेखनी में .....मेरी आत्मा तब अत्यधिक कराह उठती है जब किसी मंच से किसी बड़े साहित्यिक व्यक्तित्व को पुरस्कृत करने के उपरांत उसी स्तर का पुरस्कार किसी नए नवेले पहचान की ज़ोर पर मंच तक पकड़ बनाने वाले व्यक्तित्व को मिल जाता है ....मैं क्या कहूँ अपनी पीड़ा कैसे किसी तक पहुँचाऊ ....ज़ब मैं देखता हूँ मेरे लिए लोग किस किस हद तक गिर जाते हैं  ..और कैसे कैसे #सिफारिशी हथकंडे अपनाते हैं ....सच तो ये है अब मुझे लगने लगा है आने वाले दिनों में ऐसे लोग मेरी महत्ता खत्म करके ही मानेंगे .....ज़ब मैं देखता हूँ साहित्य का स  भी न जानने वाले लोग बड़ी बड़ी पत्रिका के सम्पादक बने बैठे हैं ....और बड़े बड़े पुरस्कारों की घोषणा करते रहते हैं .....जिससे वो अपनी महत्वकांक्षा तो पूरी करते हैं पर मेरी आत्मा की हरपल हत्या करते रहते हैं ....मुझे तो अनेक साँझा संकलनों के नाम पर भी #बाँट दिया जाता हैं ....किसी गोष्ठी में सम्मिलित होने वाले लोगों को भी बाँट दिया जाता हैं और लोगों से धन वसूली करके भी मुझे बाँटा जाता हैं .....वास्तविक हकदार जिसकी पहचान वाला शीर्ष पर बैठा न हो वो किसी कोने में पड़ा अपनी वास्तविकता का अचार डालता रहता हैं जिससे समय समय पर ज़ब उनके घर का चूल्हा नहीं जलता तब उनके पेट भरने के काम आता है ....वो कभी जान ही नहीं पाता जिनको वो बड़े साहित्यकार समझ सम्मान दे रहा है असल में वो लोग केवल #बनुवे साहित्यकार हैं ..जिनकी उपलब्धि ही या तो #मारक मुस्कान होती हैं या ऊँची पहचान ......आज के  समय तो सोशल नेटवर्क पर जमे रहने से भी लोग पुरस्कृत हो जाते हैं .....कुछ कुंठित मठाधीश महिलाओं को पुरस्कृत करके एक दूसरे में झोंटा नुचौअल कराते है . .....कुछ साहित्य के मठाधीश मेरे कंधे पर रखकर बन्दूक भी चलाते है.... मेरी गरिमा की किसी को नहीं पड़ी है सभी अपना अपना मंच /  मठ / नाम / चमकाने में लगे हैं .....ज़ब बुद्धि की जगह जोड़ तोड़ से मुझे प्राप्त करने वाले लोग इठलाते हैं ....तो मुझे बस यही महसूस होता हैं कोई #गटर मिल जाय और मैं उसमे #डूब क़र आत्म हत्या क़र लूँ ....न मैं रहूँ न मेरे नाम पर इतनी बंदरबाँट हो .....मेरा विचलित मन बस यही गीत गुनगुनाने लगा हैं ....मैं किसी को नजर नहीं .....खुद दरिया में डूब .....

सीमा "मधुरिमा"

लखनऊ !

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