आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है जातिवाद

आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है जातिवाद

prakash prabhaw news 

स्वतंत्र लेखक

भीम सिंह बघेल

आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है जातिवाद

व्यक्ति एक विशेष जाति ना केवल जन्म लेता है बल्कि जाति के द्वारा है उस व्यक्ति के लिए विभिन्न भूमिकाओं का निर्धारण होता है। जोकि उसे जीवन पर्यंत निभानी पड़ती है। जाति एक बंद समाज का उदाहरण है जाति समूह की सदस्यता अनिवार्य होती हैं तथा व्यक्ति को उसके प्रति प्रतिबद्धता निभानी पड़ती है। जातियों के चेतन ने पूर्ण अवस्था से जाति व्यवस्था की रचना होती हैं।

प्रोफेसर एमएन श्रीनिवास के अनुसार-जाति एक वंशानुगत  गोत्रीय और सामान्यतया स्थानीय पदसोपान में जिसका एक निश्चित स्थान होता है। प्रोफ़ेसर रजनी कोठारी के अनुसार-जाति संगठनात्मक ढांचे की वह सर्वप्रथम इकाई है जिसमें व्यक्ति स्वेच्छा अनुसार रहना चाहता है।

जाति प्रथा का वर्ण व्यवस्था से कोई संबंध नहीं है यद्यपि इसके लिए वर्ण व्यवस्था को ही दोष दिया जाता है और मनु को धिक्कारा जाता है क्योंकि वर्ण व्यवस्था का मूल आधार कर्म है जाति का मूल आधार कर्म नहीं है। हालांकि अधिकांश जातियों का संबंध कर्म से हैं बहुत सी जातियां कर्म से भिन्न अन्य आधारों पर गठित की गई हैं जैसे अनेक जातियां व्यक्ति के वर्चस्व के कारण बन गई उदाहरण के तौर पर वशिष्ठ, भारद्वाज, कौशिक, श्रृंगी आदि बहुत सी जातियां स्थान के साथ जुड़ गई जैसे मलिहाबाद, रामपुरिया, फतेहपुरिया, गोरखपुरिया, सिंघानिया, जैसलमेरिया आदि -आदि।

जाति व्यवस्था अनेक प्रयासों के बावजूद समाप्त नहीं किया जा सका इसका मूल कारण यह है कि जाति प्रथा रूढ़ि मात्र नहीं यह अर्थव्यवस्था के ठोस आधार पर खड़ी है यह देश की जीवन शक्ति हैं इसका मूल कारण यह है कि भारत की सभी जातियां निपुण श्रमिक ( स्किल्ड लेबर) की श्रेणी में आती हैं।

भारत की राजनीति और सामाजिक जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिसे जाति ने प्रभावित ना किया हो प्रोफेसर श्रीनिवास ने लिखा है कि शिक्षित भारतीयों में यह सुविस्तृत धारणा है कि"जाति अपनी अंतिम सांस ले रही है और नगरों में रहने वाले पश्चिमी शिक्षा प्राप्त उच्च वर्गों के सदस्य इसके बंधन से मुक्त हैं"परंतु यह दोनों धारणाएं गलत है यह लोग भोजन संबंधी प्रतिबंधों का अनुसरण चाहे ना करते हो जाति और धर्म के बाहर विवाद ना करते हो परंतु इसका अर्थ यह नहीं की वह जाति के बंधनों से पूर्णता मुक्त हैं आश्चर्यजनक संदर्भों में वे अपने जातीय व्यवहारों को प्रदर्शित करते हैं भारत में जातीय व्यवहारों को राजनीतिक और सामाजिक लेन-देन तथा प्रशासन में देखा जा सकता है।

संविधान की दृष्टि में भारतीय राजनीति जाति निरपेक्ष हैं प्रस्तावना में सामाजिक ,आर्थिक ,राजनैतिक न्याय की बात की गई है वहीं संविधान के अनुच्छेद 15 में मूल, वंश, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव को रोकता है राज्य की सेवाओं को जाति पर आधारित नहीं किया गया है निर्वाचन प्रणाली भी जाति से मुक्त हैं इस तरह कहा जा सकता है की भारतीय राजनीति जाति से मुक्त है। लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से भारतीय राजनीति जाति सापेक्ष हैं पिछड़ेपन का निर्धारण जाति के आधार पर होता है चुनाव की प्रक्रिया या उपरांत जैसे सीट वितरण, प्रचार में जातिगत जुमलो का उपयोग, मंत्रालयों के वितरण में जातिगत आधार का प्रयोग होता है। राजनीति से जुड़ा आज कोई भी पहलू नहीं बचा है जो जाति से विरत हो कल्याण और न्याय की बात जब होती है तो पिछड़ेपन और अस्पृश्यता के आधार पर उजागर करने की कोशिश की जाती हैं।

भारतीय संविधान जाति को महत्व नहीं देता और जाति के आधार पर भी विभिन्नताओं का निषेध करता है किंतु फिर भी भारतीय राजनीति जाति ग्रस्त हैं तथा इसके आधार पर अनेक क्षेत्रीय दलों का निर्माण होता है निर्वाचन प्रणाली संयुक्त है फिर भी निर्वाचन में प्रत्याशियों का चयन जाति भावना से प्रेरित होता है निर्वाचन में जातीय भावनाओं का उभरना गैर कानूनी है फिर भी सत्ता को प्राप्त करने के लिए सभी राजनीतिक दल जाति से अपील करते हैं मतदाताओं को जाति की शपथ दिलाई जाती हैं। मंत्री मंडलों का निर्माण विशेषकर राज्यों में जातीय भावनाओं से प्रभावित होता रहा है श्रीनिवासन ने लिखा कि जाति की शक्ति और क्रिया उस अनुपात में बढी जिस अनुपात में शासकों के हाथ में राजनीतिक सत्ता लोगों के हाथों से हस्तांतरित होने लगी।

जयप्रकाश नारायण का कहना है-भारत में जाति सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक दल हैं। रजनी कोठारी ने लिखा है कि-यह राजनीति नहीं जो जाति ग्रस्त है बल्कि यह जाति है जिसका राजनीतिकरण हुआ है।

जातीय ढांचे में राज्यों की राजनीति में गुटबाजी को जन्म दिया उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु और महाराष्ट्र में ब्राह्मण गुट, राजस्थान में राजपूत बनाम जाट, गुजरात में बनिया-ब्राह्मण बनाम पाटीदार गुट, बिहार में कायस्थ बनाम राजपूत गुट, आंध्र प्रदेश में कामा बनाम रेड्डी गुट, केरल में नायर बनाम एजहवा गुट, कर्नाटक में लिंगायत बनाम बोक लिंग गुट, हरियाणा में जाट बनाम ब्राह्मण, उत्तर प्रदेश में सवर्ण बनाम पिछड़े वर्ग स्पष्ट रूप से विद्यमान है। यह जातीय गुट राजनीति को प्रभावित एवं निर्धारित करते हैं।

आरक्षण से समानता और सार्वजनिक न्याय में बढ़ोतरी होगी जान रोल्स ने आरक्षण व्यवस्था को सलिके से प्रस्तुत किया तीन बातें कहीं जब संसाधनों का सामान वितरण करना है तो पहला कार्य अवसर का सामान वितरण किया जाए जिसके पश्चात भी समाज के कुछ बार पिछड़े रह सकते हैं तो दूसरे नंबर पर पिछड़ों के लिए विशेष सहायता एवं सहयोग उपलब्ध कराया जाए लेकिन जब पिछड़े आगे बढ़ जाएं तो तीसरे नंबर पर प्रतिस्पर्धा की व्यवस्था स्थापित करना चाहिए प्रतिस्पर्धा के उपरांत जो व्यक्ति और समाज अपने आप को स्थापित करता है उसे विशेष सम्मान की व्यवस्था करना चाहिए इसको भारतीय संविधान निर्माताओं ने विश्लेषित करने का प्रयास किया तथा संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में कहा गया कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से पिछड़े हुए लोगों के लिए विशेष आरक्षण दिया जाए वही अनुच्छेद 335 में यह शर्त लगाई गई कि आरक्षण प्रशासन की दक्षता के अनुकूल हो तथा प्रशासन में बाधा उत्पन्न ना हो व्यक्तिगत आधार पर व्यक्तियों के सामाजिक , आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ापन खोज पाना जटिल कार्य है।

आरक्षण व्यवस्था को व्यवहारिक रूप प्रदान करने के लिए काका कालेलकर आयोग का गठन किया गया जिसमें जाति को बर्ग माना गया और वर्गों के आधार पर आरक्षण व्यवस्था की गई जिसमें तीन वर्ग बनाए गए थे सामान्य वर्ग दूसरा अनुसूचित वर्ग और तीसरा अनुसूचित जनजाति में विभाजित किया गया सामान्य वर्ग को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से संपन्न माना गया तथा कोई आरक्षण की व्यवस्था नहीं की गई अन्य दो वर्गों को आरक्षण प्रदान किया गया जिससे किसी भी तरह का समाज में असंतोष नहीं था परंतु प्रोन्नति में आरक्षण से अगले वर्गों में असंतोष पैदा हुआ फिर भी आरक्षण व्यवस्था बनी रहे 1978 में मंडल आयोग का गठन किया गया जिसकी सिफारिश 1989 में प्रस्तुत की गई तथा एक नए वर्ग जिसे अन्य पिछड़ा वर्ग कहा गया इस तरह समाज में चार विभाजन हो गया अन्य पिछड़ा वर्ग को 27% और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को मिलाकर 22.5 प्रतिशत का आरक्षण प्राप्त हुआ उद्देश्य था समाज समाज के पिछड़े वर्ग को आगे बढ़ाना आरक्षण का आधार था सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन लेकिन प्रश्न यह उठता है कि सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में उन्नति कैसे होगी जब सामाजिक मूल्यों में समरसता प्रदान करने का प्रयास किया जाए शैक्षणिक समरसता तब स्थापित होगी जब समाज के पिछड़े हुए लोगों को निःशुल्क, सशक्त और प्रभावी शिक्षा उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाए राज्य ने इन दोनों क्षेत्रों में विशेष भूमिका नहीं निभाई।

जितना आरक्षण नियुक्तियों और नौकरियों को लेकर किया गया उतना शैक्षणिक और सामाजिक क्षेत्र पर ध्यान नहीं दिया गया आरंभ में यह व्यवस्था 10 वर्षों के लिए थी संशोधन कर- कर के या 2020 तक के लिए कर लिया गया है। जो वर्ग 1953 में आरक्षित किए गए थे आज 70 साल बाद भी वह जातियां आरक्षित है 70 साल में राज्य ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया कि पिछड़े वर्ग से निकालकर अगड़े वर्ग में शामिल कर दिया जाए ऐसी स्थिति में पिछड़े लोगों में भी असंतोष और अगड़े लोगों में भी असंतोष है आरक्षण व्यवस्था ने इस असंतोष को पैदा किया चुकी आरक्षण निरंतर मिला है इसलिए आरक्षण प्राप्त करता लोगों द्वारा यह विशेषाधिकार के रूप में लेने लगे। वास्तविकता यह है कि पिछड़े वर्ग के संपन्न लोग आरक्षण का लाभ उठा पाते हैं तथा विपन्न लोग आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाते हैं शैक्षणिक जगत का महंगा हो जाने से अभावग्रस्त बने हुए हैं आरक्षण को समाप्त करना सत्ता से हाथ धोने के बराबर माना जाता है।

मंडल कमीशन के फल स्वरुप सामान्य श्रेणी के लोगों ने देश के कई हिस्सों में आत्मदाह किया और विरोध किया हमेशा 1990-९५ तक आरक्षित बनाम अनारक्षित विवाद प्रभावी हुआ 2017 -18 में फिर से यह मुद्दा प्रभावी हो गया इसका कारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रोन्नति में आरक्षण को संयमित करने की सिफारिश करना था जिसमें ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजाति में असंतोष पैदा हो गया किंतु उसने अनुसूचित जाति वर्ग के लिए ऐसे प्रावधान किया गया जिससे असंतोष पैदा हो गया।

जिसके फलस्वरूप सामान्य बनाम आरक्षित वर्ग का आंदोलन चला इस आंदोलन में देश झुलस रहा था ऐसे आंदोलनों से राज्य शक्ति की उर्जा का हास होता है करोड़ों रुपए की संपत्ति बचाने के लिए राज्य अपने संसाधनों का प्रयोग करता है तथा अपनी उर्जा नष्ट करता है जिससे सामाजिक एक ही काम को खतरा पैदा होता है अल्पसंख्यकों के मतों को प्राप्त करने के लिए दलों द्वारा और असुरक्षा की राजनीति का सहारा लिया जाता है उत्तर भारत के राज्य जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा जैसे राज्यों में इस की प्रबलता देखी जाती हैं जाति एक उप लाभ पदावली बन गई हैं जिससे लोकतंत्र का वास्तविक विकास बाधित होता है इस तरह जाति व्यवस्था ना केवल सामाजिक समरसता में बाधा पहुंच आती है बल्कि राष्ट्रवाद की भावना के विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं भारतीय समाज को चाहिए कि इससे बचने के बजाय इससे पार पाने के रास्तों पर विचार करें जिससे देश में एकता ,अखंडता, और सामाजिक समरसता को स्थापित करते हुए देश के विकास में कैंसररुपी बीमारी को समाप्त कर देश को विकास के पथ पर अग्रसर किया जा सके।

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