नवाबी दौर से आज तक पान में क्या क्या आये बदलाव

PPN NEWS
लगावट की अदा से उनका कहना "पान" हाजिर है,
कयामत है, सितम है, दिल फिदा है, जान हाजिर है...
अकबर इलाहाबादी का यह शेर पान के शौकीनों के लिए महज शेर नहीं कुछ कुछ इश्क के पकने सा है। पान के भीगे पत्ते, कत्थे का चटख रंग, इलायची की भीनी महक और गुलकंद की मिठास के साथ तैयार किया गया पान किसी को भी दीवाना बना दे और पान लखनऊवा हो तो कहने ही क्या? यहां का पान भी लखनवी तहजीब और नफासत में ढला है। दुनियाभर में शोहरत बटोरने वाला बनारसी पान खाने के लिए थोड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। बनारसी पान में थोड़ी बड़ी और सख्त डली और साधारण चूना इस्तेमाल किया जाता है जबकि लखनऊवा पान में महीन सुपारी और मलाई जैसा चूना इस्तेमाल होता है ताकि पान मुंह में ही घुल जाए और जरा भी मशक्कत न करनी पड़े। जानें, कैसे अलग है लखनऊवा पान और उससे जुड़े किस्से...
इतिहास के पन्नों में पान :-
लखनऊ के मशहूर लेखकों में शुमार अब्दुल हलीम शरर अपनी किताब में लिखते हैं कि लखनवी तहजीब में सबसे पहली तरक्की पान के पत्ते को लेकर हुई। पहले पान के पत्तों में सुधार किया गया। महोबा का पान कुदरती तौर पर बहुत अच्छा होता था लेकिन उस वक्त लखनऊ में भी पान की खेती शुरू की गई। पानवाले पान को जमीन में दफन करके रखते थे ताकि उसका कच्चापन दूर हो जाए। इससे पत्ते में सफेदी आ जाती और कसैलापन भी दूर हो जाता। इसे बेगम पान कहते थे क्योंकि यह काफी नर्म और स्वाद में अच्छे होते थे।
चूने में मिलाते थे मलाई:-
जानकारों की मानें तो नवाबी दौर में चूने को मुगलई अंदाज में खाने के बजाए उसे बेहतर और खुशबूदार बनाने की ओर ध्यान दिया गया। चूने को खूब छानने के बाद उसमें थोड़ी मलाई मिलाई जाती थी। कुछ लोग इसमें ताजी दही का तोड़ भी मिला देते थे। इससे चूने की तेजी और होने वाले नुकसान कम हो जाते थे।
आंच पर रखते थे कत्था:-
पान में कत्थे को सबसे बेमजा माना जाता है लेकिन इसके बिना वह अधूरा भी है। कत्था कड़वा और कसैलापन लिए होता है। यही वजह है कि लखनवी पानबाज आम तरीके से तैयार कत्थे को हल्की आंच पर रखते हैं। हां, इसका तरीका थोड़ा जुदा है। तवे पर कपड़ा रखकर उस पर जमा हुआ कत्था रोटी की तरह फैलाते हैं जिस पर बार बार पानी छिड़कते हैं। इससे कत्थे का बट्ठापन खत्म हो जाता और कपड़े पर बचा सफेद कत्था बच जाता जिसे बाद में केवड़ा छिड़क कर खुश्क कर लिया जाता है।
बाजरे के दाने के बराबर सुपारी:-
डली के सरौते से छोटे-छोटे टुकड़े कर लिए जाते हैं। लेकिन लखनवी तहजीब में डली की कटाई भी किसी कला से कम नहीं थी। महिलाएं डली को बाजरे के दाने के बराबर काटती थीं, जिससे पान में डलने के बाद चबाने में ज्यादा वक्त जाया न हो।
पानवालियां लगाती थीं पान:-
पान खाने की शुरुआत मुगलकाल से मानी जाती है। उस वक्त सिर्फ चूने के पान खाए जाते थे। कहा जाता है कि पान में कत्थे का इजाफा नूरजहां ने किया। लखनऊवालों ने पान के साथ मसालों को जोड़ा। लखनऊ में पान लगाने के अंदाज पर भी खास ध्यान दिया गया। नवाबी दौर में पानवालियां शाही दरबार में काफी खास होती थीं। नक्खास में पान शॉप के ओनर मोहम्मद अजहर बताते हैं कि हम लोग बचपन में सुनते थे कि नवाबी दौर में शाही महलों और बेगमों के यहां पानवालियां होती थीं जो खास तनख्वाह पर रखी जाती थीं। उनका काम पान लगाना और खिलाना होता था।
लखनऊ ने दिया चांदी वर्क और जाफरान:-
शहर की मशहूर लेखिका नुसरत नाहिद अपनी किताब में लिखती हैं कि खुशबूदार मसालों और चांदी के वर्क में पान लपेटने की कला लखनऊ की ही देन है। पान में केसर (जाफरान) खाने का रिवाज नसीरुद्दीन हैदर के जमाने से है। केसर खाने की दो वजह हैं पहली पान के टुकड़ों और भीगी हुई डली की किरचें दांतों में नहीं फंसती और दूसरा लस बना रहता है। वह आगे लिखती हैं कि नवाबों के महलों की औरतों को मुगलाई कहा जाता था शायद इसलिए नवाबी दौर में एक पान का नाम मुगलाई रखा गया।
हाथों से पान खिलाने की रवायत:-
नवाबी दौर में पान लगाने की कला से इतर पान सजाने और पान खिलाने की रवायत पर भी जोर दिया गया। पान रखने के लिए खासदान होते थे, उसमें पान की गिलौरियों रखी जाती थीं। सिटी स्टेशन के पास 30 सालों से पान की शॉप लगा रहे मोहम्मद शफीक बताते हैं कि मुझसे पहले मेरे अब्बा ने 40 साल तक पान की दुकान लगाई है। वह बचपन में बताते थे कि पहले शाही घरानों में बड़े बड़े पानदान या खासदान होते थे जिसमें पान की गिलौरियां रखवा दी जाती थीं। पान की यह पैकिंग लखनवी तहजीब में खास मुकाम रखती है। उसके बाद पानवालियां अपने हाथों से पान खिलाया करती थी। मेरे अब्बा के जमाने तक हाथ से पान खिलाने का चलन रहा।
पान की वरायटी में आया बदलाव:-
नक्खास के जाने-माने पानवाले मो. अजहर जो कि अजहर भाई के नाम से जाने जाते हैं। उन्होंने लखनवी तहजीब को जिंदा रखने के लिए नवाबी शख्सीयतों के नाम पर पान ईजाद किए हैं। अजहर बताते हैं कि उनकी दुकान पिछले 80 सालों से है जिसे वह खुद 40 साल से चला रहे हैं। पहले सादे पान से हुई शुरुआत आज पान की ढेरों वरायटी में तब्दील हो गई है। अजहर बताते हैं कि उनके यहां बेगम पसंद पान, वाजिद अली शाह की गिलौरी, शाही मीठा पान, पलंग तोड़ पान से लेकर कमर के दर्द का पान, मुंह के छालों का पान और खट्टा मीठा पान सब मिलता है। इन सब पानों के मसालों में करौंदे की कैरी, आंवला, अन्नानास, गुलकंद और फूलों की चटनी का इस्तेमाल इसे और लजीज बना देता है। यहां पान के पत्तों की वरायटी पर भी खास ध्यान दिया जाता है।
बिना कत्था, चूना और डली का पान:-
गोमतीनगर में न्यू लखनवी पान भंडार के ओनर श्रीकांत मोदी कहते हें कि हमारे यहां पान में कत्थे, चूने और डली का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं होता है। हम लोग हर्बल पान की तरफ ध्यान देते हैं। गुलकंद और फूलों की चटनी भी खुद ही बनाते हैं। इसके अलावा मीठा पान और सादा पान ज्यादा डिमांड में रहता है। प्लेवर्ड पान जैसे स्ट्रॉबेरी, बटर स्कॉच, लीची और चॉकलेट फ्लेवर पान भी हमने बनाया है।
लखनवी व बनारसी पान में क्या अंतर है:-
लखनवी पान में नवाबी दौर में ज्यादातर दिसौरी पान के पत्ते इस्तेमाल होते थे। ये स्वाद में सादा होता था। न कड़वा और न मीठा। इसे ज्यादा चबाना नहीं पड़ता था। आजकल सौफिया, जो कि मीठा पान होता है, मगही पान, देसी बंगला और बनारसी पान का पत्ता ज्यादा इस्तेमाल होता है। बनारसी पान की बात करें तो बनारसी पत्ता पकाया जाता है और उसे पीला किया जाता है। इसके बाद बनारस में तंबाकू वाले पान ज्यादा पसंद किए जाते हैं जबकि लखनऊ में मीठे और सादे पान की ज्यादा डिमांड रहती है। एक चीज और है जो लखनऊवा पान को बनारसी पान से अलग करती है। बनारसी पान में चूना अलग से दिया जाता है ताकि पान के साथ नबाज चूने को हल्के से चाटें जबकि लखनवी तहजीब में इसे बेअक्ली समझकर चूने को पान में ही लगाना बेहतर समझा जाता है।
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