तुलसी विवाह की विधि व महत्व

तुलसी विवाह की विधि व महत्व

प्रकाश प्रभाव न्यूज़ प्रयागराज 

संग्रहकर्ता सुरेश चंद्र मिश्रा "पत्रकार"

( पिछले अंक से आगे....)

तुलसी विवाह की विधि व महत्व

कार्तिक शुक्ला नवमी को द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था। इस तिथि को नवमी से एकादशी तक मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से तुलसी विवाह का उत्सव करें तो उसे कन्यादान का फल होता है। पूर्वकाल में कनक की पुत्री किशोरी ने एकादशी के दिन संध्या के समय तुलसी की वैवाहिक विधि संपन्न की थी इससे वह वैधव्य दोष से मुक्त हो गई थी। अब तुलसी विवाह की विधि सुनिये-

          एक तोला स्वर्ण की भगवान् विष्णु की प्रतिमा बनवाएँ या अपनी शक्ति के अनुसार आधे या चौथाई तोले की बनवाएँ अथवा यह भी न होने पर उसे अन्य धातुओं के सम्मिश्रण से ही बनवाएँ। फिर तुलसी और भगवान् विष्णु की प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा करके स्तुति आदि के द्वारा भगवान् को निन्द्रा से जगावें। फिर पुरुष सूक्त से व घोडशोपचार से पूजा करें। पहले देशकाल स्मरण करके गणेश पूजन करे, फिर पुण्याह वाचन करके वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए बाजे आदि की ध्वनि से भगवान् विष्णु की प्रतिमा को तुलसी के निकट लाकर रख दें। प्रतिमा को सुंदर वस्त्रों व अलंकारों सजाए रहें उसी समय भगवान् का आह्वान इस मंत्र से करें-

              आगच्छ भगवत् देव अर्चयिष्यामि केशव।

              तुभ्यं दासयामि तुलसीं सर्वकामप्रदो भव॥

          अर्थात्-हे भगवान् केशव ! आइए देव, मैं आपकी पूजा करूँगा, आपकी सेवा में तुलसी को समर्पित करूँगा आप मेरे सब मनोरथों को पूर्ण करें।

          इस प्रकार आह्वान के बाद तीन-तीन बार अर्ध्य, पाद्य और विष्टर का उच्चारण करके इन्हें भी भगवान् को समर्पित कर दे। तत्पश्चात् काँसे के पात्र में दही, घी और शहद रखकर उसे कांसे के ढक्कन से ढककर भगवान् को अर्पण करते हुए इस प्रकार कहें- 'हे वासुदेव, आपको नमस्कार है। यह मधुपर्क ग्रहण कीजिए।' तब दोनों को एक-दूसरे के समक्ष रखकर मंगल पाठ करें। इस प्रकार गोधूलि बेला में जब भगवान् सूर्य कुछ-कुछ दिखाई दे रहे हों, तब कन्यादान का संकल्प करें और भगवान् से यह प्रार्थना करें- "आदि, मध्य और अंत से रहित त्रिभुवन प्रतिपालक परमेश्वर ! इस तुलसी को आप विवाह की विधि से ग्रहण करें। यह पार्वती के बीज से प्रकट हुई है, वृंदावन की भस्म में स्थित रही है तथा आदि, मध्य और अंत में शून्य है। आपको तुलसी अत्यंत प्रिय है अतः इसे मैं आपकी सेवा में अर्पित करता हूँ। मैंने जल के घड़ों से सींचकर और अन्य सभी प्रकार की सेवाएँ करके, अपनी पुत्री की भाँति इसे पाला-पोसा है, बढ़ाया है और आपकी तुलसी आपको ही दे रहा हूँ। हे प्रभो ! कृपा करके इसे ग्रहण करें।"

          इस प्रकार तुलसी का दान करके फिर उन दोनों (तुलसी और विष्णु) की पूजा करें। अगले दिन प्रातः काल में पुनः पूजा करें। अग्नि की स्थापना करके उसमें द्वादशाक्षर मंत्र से खीर, घी, मधु और तिल मिश्रित द्रव्य की 108 आहुति दें। आप चाहें तो आचार्य से होम की शेष पूजा करवा सकते हैं। तब भगवान् से प्रार्थना करके कहें- "प्रभो ! आपकी प्रसन्नता के लिए मैंने यह व्रत किया, इसमें जो कमी रह गई हो, वह आपके प्रसाद से पूर्णताः को प्राप्त हो जाए। अब आप तुलसी के साथ बैकुण्ठ धाम में पधारें। आप मेरे द्वारा की गई पूजा से सदा संतुष्ट रहकर मुझे कृतार्थ करें।"

          इस प्रकार तुलसी विवाह का पारायण करके भोजन करें, और भोजन के बाद तुलसी के स्वत: गिरे हुए पत्तों को खाऐं, यह प्रसाद सब पापों से मुक्त होकर भगवान् के धाम को प्राप्त होता है। भोजन में आँवला और बेर का फल खाने से उच्छिष्ट-दोष मिट जाता है।

तुलसी दल कैसे तोड़े इसका वर्णन अगले अंक में....।

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