गीता जयंती मोक्षदा एकादशी पर विशेष।

गीता जयंती मोक्षदा एकादशी पर विशेष।

प्रकाश प्रभाव न्यूज प्रयागराज

संग्रहकर्ता - सुरेश चन्द्र मिश्रा"पत्रकार"

गीता जयंती मोक्षदा एकादशी पर विशेष।

गीता सुगीता कर्तव्या किमान्यै शाश्त्रसंग्रहैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुख पद्माद्विनिःसृता।। 

मित्रों आज गीता जयंती महापर्व पर सकल शाश्त्र सिद्धांत निष्पन्न भगवती गीता जी की महा महिमा का यथा संभव चिंतन करने का प्रयास कर रहा हूं यद्यपि अखिल भुवन के समस्त मनीषी अनेकानेक कल्पों तक अनंत प्रयास करने पर भी गीता महार्णव का ओर छोर पाने में असमर्थ ही सिद्ध होंगे तथापि निज निज मति अनुसार गीता ज्ञान गंगा मे सबने अवगाहन करके अपने आप को कृतार्थ किया है। कर्ता से कार्य की महिमा आधिक होती है इस  न्याय के अनुसार तो गीता जी की महिमा भगवान से भी अधिक है। गीताश्रयेहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमम् गृहम्। गीता ज्ञान मुपाश्रित्य त्रीलोकान् पालयाम्यहम्। गीता के आश्रय मे ही भगवान रहते है गीता जी निवासस्थली हैं उनकी और इन्हीं के प्रभाव से वो अखिल लोकों का पालन पोषण करते हैं। जिस स्थित प्रज्ञता की अवस्था में गीताजी का प्रादुर्भाव हुआ वह विश्व मे सर्वथा नवीन  है। दोनों पक्षों की विशाल सेना हांथी घोडों का कर्कश रव धूल से आक्षादित अंतरिक्ष सैनिकों का तुमुल कोलाहल और जय पराजय के अनिश्चितता भरे वातावरण में 18 अक्षौहिणी सैन्य बल के मध्य अवस्थित होकर जिस एकाग्रता से विश्व का यह महानतम् ब्रह्मज्ञान प्रस्फुटित हुआ वही इसके अपौरुषेय होने का अकाट्य प्रमाण है।किसी पुरुष द्वारा इस कोलाहल मे इतनी स्थितप्रज्ञता सर्वथा असंभव है। 

समस्त श्रुतियों स्मृतियों पुराणों के सारतत्व को मात्र मुहूर्त भर में वह भी रणांगण के मध्य प्रगट कर देना  ब्रह्म द्वारा ही संभव है और उसे सांगोपांग ग्रहण कर लेना भी अर्जुन जैसे स्थित प्रज्ञ द्वारा ही संभव था।जिन अर्जुन के संबंध मे दुर्योधन स्वीकार करता है ।।आत्मा हि कृष्णः पार्थस्य कृष्णस्यात्मा धनंजयः। 

यद् ब्रूयादर्जुनः कृष्णं सर्वं कुर्यादशंशयम्। 

अर्थात दोनों दो शरीर एक प्राण हैं ए साक्षात् नर नारायण के अवतार हैं इसीलिए यह सिद्ध होता है कि अर्जुन ने प्रथम अध्याय के विषाद योग मे भयभीतता और किंकर्तव्यविमूढत्व का जो आवरण धारण किया है वह मात्र कृष्णरूपी कुशल ग्वाल  से लोकहितार्थ श्रुति स्मृति स्वरूपा कामधेनु से गीता दुग्ध दोहनार्थ ही था। मानस मे याज्ञवल्क्य का वह वाक्य इन पर अक्षरशः सिद्ध होता है कि।। चाहेहु सुनै राम गुन गूढा।। कीन्हेउ प्रश्न मनहुं अति मूढा।।

पार्थ जैसे तत्वदर्शी जिनके लिए भगवान स्वयं कहते हैं। 

तव भ्राता मम सखा सम्बन्धी शिष्य एव च। मांसानुत्कृत्य दास्यामि फाल्गुनार्थे महीपते। एष चापि नर व्याघ्रो मत्कृते जीवितं त्यजेत्। एष नः समयस्तात तारयेम परस्परम् ।।

जिस अर्जुन के लिए भगवान मांस काट कर देने को और प्राण तक देने को तत्पर हैं जिसे बुद्धि और विवेक मे अपने से अणुमात्र भी कम नहीं मानते भगवान। सुसुप्तावस्था में भी जिसके रोम, रोम, से कृष्ण नाम की मंजुल ध्वनि आती है वह इतनी मूढता को प्राप्त होगा कि।। कुलक्षये प्रणस्यंति कुलधर्माः सनातनाः। धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्न मधर्मोंभिभवत्युत।। और क्षात्र धर्म संयुक्त युद्ध को।। अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।यद्राज्य सुख लोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता।। और यहां तक की ।।यदि मामप्रतीआरमशस्रं शस्रपाणयः

।धार्तराष्ट्र रणे हन्युस्तमे क्षेमतरं भवेत्।।

याने शस्र त्याग कर कापुरुषता ग्रहण करके कौरवों जैसे शत्रु से अपेक्षा कि शस्र त्यागने पर वो इन्हें छोड देंगे। वस्तुतः चाहे गरुण हों पार्वती हों भरद्वाज या योग वाशिष्ठ के राम हों या गीता के अर्जुन हों ए सब पूर्ण ज्ञानी होने पर भी जगत कल्याणार्थ दिव्य ज्ञान श्रोत के उद्घाटनार्थ यह आज्ञानता का स्वांग रचाते हैं और उसका परिणाम बडा लोक हितकारी होता है। अंत में  यह स्वीकारोक्ति कि नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धवा त्वत्परसादान्मयाच्युत।स्थितोस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव। यह वाक्य हम जगत वासियों के प्रतिनिधि के रूप मे व्यक्त कर रहे हैं कुंती पुत्र। ए दोनो नित्य निरंतर के सखा हैं और साथ साथ बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। अनेकों बार जन्मे हैं ए सदा एक दूसरे के पूरक हैं और जहां ए दोनों विद्यमान है विजय श्री और कीर्ति वहीं स्थिर रहती है।। यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थोधनुर्धरः।तत्र श्री विजयो भुतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।। इन्ही शब्दों के साथ आज गीता जयंती महोत्सव पर समस्त सनातन धर्मावलंबी सज्जनों देवियों को बहुत बहुत शुभकामना बधाई।

।।जै जानकी जीवन।।

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