21 दिवसीय मौन साधना की पूर्णाहुति पर किया विशेष यज्ञ व गंगा जी का अभिषेक व पूजन

21 दिवसीय मौन साधना की पूर्णाहुति पर किया विशेष यज्ञ व गंगा जी का अभिषेक व पूजन

PPN NEWS

ऋषिकेश, 22 अगस्त।


स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने आज 21 दिवसीय मौन साधना की पूर्णाहुति पर किया विशेष यज्ञ व गंगा जी का अभिषेक व पूजन

परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी की 21 दिवसीय मौन साधन की आज पूर्णाहुति हुई। इस अवसर पर परमार्थ निकेतन में विशष यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें विशेष अतिथियों, परमार्थ गुरूकुल के आचार्यो, ऋषिकुमारों और विश्व के कई देशों से आये श्रद्धालुओं ने सहभाग किया।

परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने कहा कि मौन जब-जब मुखर होता है तब वह सब से प्रखर होता है। मौन हमें प्रभु से जोड़ता है, स्वयं से जोड़ता है, समाज से जोड़ता है और फिर हम सम्पूर्ण समष्टि से जु़ड़ जाते हैं।


स्वामी जी ने कहा कि मौन, भावनाओं के चरम स्तर की अभिव्यक्ति का माध्यम है जो कि अन्तर्मन से संवाद स्थापित करने का सेतु बनाता है। मौन, मनःस्थिति की जटिलटाओं को समाप्त कर सरल व सहज वातावरण का निर्माण करता है तथा अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करता है। कबीरदास ने कहा है कि ईश्वर की अनुभूति ‘गूंगे के गुड़’ के समान है। जिस तरह कोई गूंगा व्यक्ति गुड़ खाकर अद्भुत आनंद तो महसूस करता है किंतु उस आनंद की अभिव्यक्ति करने में असमर्थ होता है, वैसे ही अध्यात्म के मार्ग पर बढ़ने पर प्राप्त अनूठी व विलक्षण अनुभूतियों को शब्दों की भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता।


स्वामी जी ने कहा कि मौन साधना के दौरान हमारा संबंध बाहरी दुनिया से हट जाता है और हम स्वयं से, अपने-आप से संवाद करने लगते है। बोलने के सुख से कहीं बड़ा सुख मौन में है क्योंकि मौन के समय आंतरिक संवाद स्थापित होता है।


महात्मा गांधी जी ने दिखा दिया कि मौन से बढ़कर कोई हथियार नहीं है। उन्होंने बताया कि जब भी मन में अनिर्णय की स्थिति हो तो मौन रहिये, जब तक आपकी अंतरात्मा कोई सीधा और स्पष्ट निर्णय न सुना दे। गांधी जी ने बताया कि मौन भी अभिव्यक्ति का ही एक प्रबल रूप है जिसके महत्त्व को गौण नहीं समझा जा सकता। हमारे ऋषियों ने वर्षों तक एकान्त में बैठकर ध्यान व मौन के माध्यम से स्वयं को तलाशा, तराशा तथा स्वयं से वयं तक की यात्रा की। मौन साधना खुद को तलाशने, तराशने के साथ जीवन को बेहतर बना देती है।  


स्वामी जी ने कहा कि साधना से तात्पर्य मौन, माला या मंत्रों को साधने से नहीं है बल्कि इस माध्यम से स्वयं को साधना, समर्पण भाव जागृत करना, समर्पण-शरणागत भाव, प्रभु मेरा हर कर्म, मेरी हर श्वास तेरी, जो कुछ है बस तेरा ’तेरा तुझको अर्पण’ यही समर्पण भाव चाहिये। निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्, हम तो केवल निमित्तमात्र है, मात्र एक साधन है। मेरा कर्म ही मेरी पूजा, मेरा वर्क ही मेरी वर्शिप है; मेरी पूजा है। अगर हम अपने आप को ईश्वर का एक इन्स्टुमंेट, एक टूल, एक यंत्र, समझ कर समाज की, राष्ट्र की सेवा करें तो उस सेवा में जो आनन्द आयेगा, शान्ति मिलेगी और प्रसन्नता मिलेगी उस का अनुभव ही अद््भुत है। इतना ही नहीं फिर हम अपने वर्क को, सेवा को भी एन्ज्वाय करने लगेंगे।


हमारे ऋषियों ने अपने आध्यात्मिक अनुसंधानों के आधार पर योग, यज्ञ, ध्यान, मौन आदि अनेक परम्पराओं का निर्माण किया। ऋषियों ने कई वर्षों तक एकांतवास मंे रहकर अपने जीवन के अनुभव, प्रामाणिकता और अनुसंधान के आधार पर जीवन मूल्यों का निर्माण किया, उन्ही प्रामाणिक अनुसंधानों से भारतीय संस्कृति और संस्कारों का प्रदुर्भाव हुआ है। आईये इसे अंगीकार करें और एक समृद्ध राष्ट्र निर्माण की दिशा में आगे बढ़ते रहें।

Comments

Leave A Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *