बहुराष्ट्रीय त्रासदी में खड़ा भारत, लॉकडाउन के चार माह पूरे

बहुराष्ट्रीय त्रासदी में खड़ा भारत, लॉकडाउन के चार माह पूरे

बहुराष्ट्रीय त्रासदी में खड़ा भारत, लॉकडाउन के चार माह पूरे

पी पी एन न्यूज

कमलेन्द्र सिंह


 बहुराष्ट्रीय त्रासदी कोरोना वायरस महामारी के कारण आज देश में लॉकडाउन के पूरे चार माह हो गये। सबकुछ ठप रहा पर भारत चलता रहा। इस एक माह के भीतर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सक्रियता से भारत का नेतृत्व किया और यह संदेश दिया कि उनमें विश्व का नेतृत्व करने की ताकत है। नेतृत्व की इस क्षमता के पीछे राष्ट्र के रूप में भारत की लोकतांत्रिक ताकत है। ‘भारत’ संसदीय प्रणाली की सरकार वाला एक स्वतंत्र प्रभुसत्ता सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य है और संविधान में सरकार के संसदीय स्वरूप की व्यवस्था है। संविधान के अनुच्छेद 74 (1) में यह प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति की सहायता करने तथा उसे सलाह देने के लिए एक मंत्री परिषद होगी, जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होगा। वस्तुतः सरकार की कार्यकारी शक्ति मंत्री परिषद में निहित है, जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री है।

13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा ने भारत को एक स्वतंत्र संप्रभु तंत्र घोषित करने और उसके भावी शासन के लिए एक संविधान बनाने का संकल्प प्रकट करते हुए कहा कि “संप्रभु स्वतंत्र भारत तथा उसके अंगभूत प्रदेशों और शासन के सभी अंगों की सारी शक्ति और सत्ता जनता द्वारा प्राप्त होगी, जिसमें भारत के सभी लोगों को राजकीय नियमों और साधारण सदाचार के अधीन सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय के अधिकार, वैयक्तिक स्थिति व अवसर की तथा कानून के समक्ष समानता के अधिकार और विचारों की, विचारों को प्रकट करने की, विश्वास व धर्म की, ईश्वरोपासना की, काम-धन्धे की, संघ बनाने व काम करने की स्वतंत्रता के अधिकार रहेंगे और माने जाएंगे।”

कुछ अपवादों को अगर छोड़ दें, भारत का यह सौभाग्य रहा है कि यहां संविधान के दायरे में सरकार की शक्ति और जनता के अधिकार में अद्भुत संतुलन रहा है, जो वैश्विक जगत को भी अचम्भित करता है। भारतीय गणतंत्र की सफलता के मूल में जनता द्वारा अधिकार की आराधना से अधिक कर्तव्य की साधना रही है। यह भारत की सनातन प्रकृति रही है, संस्कृति रही है, जो चुनौतियों की विकृति को कभी लम्बे समय तक हावी नहीं होने दिया।

लॉकडाउन एक आपातकालीन प्रोटोकॉल है, जो सरकार द्वारा संकट व आपात की स्थिति में नागरिकों के आवागमन को प्रतिबंधित करता है। आधुनिक विश्व इतिहास में लॉकडाउन जैसी स्थिति पहले विश्वयुद्ध में बनी, जो 28 जुलाई, 1914 से आरम्भ होकर 28 जून, 1919 को वर्साय की सन्धि के साथ समाप्त हुआ। ब्रिटिश उपनिवेश होने के कारण भारत भी इसमें अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होने के लिए बाध्य था। पहले विश्वयुद्ध में विश्व के कई देशों ने लाखों की संख्या में जनबल को खोया। भारत भी उसमें शामिल था। किंतु भारत पर इसके प्रभाव कई मायनों में सकारात्मक भी कहे जा सकते हैं, क्योंकि भारतीय सैनिकों के इस युद्ध में शामिल होने की शर्तों को ब्रिटिश सरकार द्वारा पूरा न किये जाने से भारतीयों का उसके प्रति मोहभंग हो गया और बढ़ते असंतोष ने राष्ट्रवाद को बढ़ाया, अंततः स्वतंत्रता की चेतना प्रस्फुटित हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत 1 सितंबर, 1939 को हुई और वह युद्ध 2 सितंबर, 1945 तक चला। इस दौरान 6 साल तक विश्व में लॉकडाउन जैसी स्थिति रही। एक अनुमान है कि विश्व में 5-7 करोड़ लोगों की जानें गईं, जिसमें सैनिकों के साथ-साथ बड़ी संख्या में नागरिक भी काल के गाल में समा गए। द्वितीय विश्वयुद्ध ने ब्रिटिश सरकार से भारत की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया।

तत्कालीन गवर्नर जनरल ने घोषणा करते हुए कहा कि “युद्ध के बाद ऐसी समिति नियुक्त की जायेगी जो पूर्णतया राष्ट्रीय होगी और वह भारत के भावी संविधान की रूपरेखा तैयार करेगी। स्वतंत्र भारत में लॉकडाउन की स्थिति 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान बनी थी। हमने देखा था स्कूल, कॉलेज, सरकारी कार्यालयों में काम जरूर होते थे, लेकिन सरकारी निर्देशों के साथ नियंत्रण में। रात्रि को रोशनी जलाना प्रतिबंधित था। कर्फ्यू जैसे हालात रहते थे। डर और दहशत का माहौल रहता था। इन दोनों युद्धों में क्रमशः लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत की विजय हुई। राष्ट्रीय संस्कृति के प्रति उदासीनता समाप्त हुई और राष्ट्रीयता का नवजागरण हुआ। सुप्त राष्ट्रीयता ने जागृत राष्ट्रीयता का रूप लिया। नव राष्ट्रवाद का जागरण हुआ। नव राष्ट्रवाद की इस धारा को उस समय और शक्ति मिली जब 1999 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में कारगिल युद्ध में विजय मिली।

आज पूरा विश्व अदृश्य शत्रु कोरोना वायरस से युद्ध कर रहा है। भारत भी इस युद्ध को मजबूती से लड़ रहा है। लेकिन कोरोना के विरुद्ध इस युद्ध के कारण आज जो लॉकडाउन की स्थिति है, राष्ट्र के रूप में भारत और भारतीय नागरिकों ने इसे चुनौती से अधिक अवसर के रूप में लिया है। चुनौती है। गंभीर चुनौती है। लेकिन नागरिक बोध, आत्मविश्वास और जागृति के एक नए युग की शुरुआत भी हुई है। नागरिकों का आत्मविश्ववास बढ़ा है और आत्मसम्मान जगा है। बहुराष्ट्रीय त्रासदी के दौरान नागरिक कर्तव्य क्या हो, यह परिभाषित हुआ है।

जनता और सरकार के बीच परस्पर विश्वास, अधिकार और कर्तव्यबोध परिभाषित हुआ है। सरकार क्या है? सरकार कैसी हो? किसके लिए हो? दायित्व क्या हो? सरकार की आवश्यकता क्यों? इन प्रश्नों को सार्थक उत्तर मिला है। ‘कोउ नृप होय हमें का हानी’, इस दायत्वहीन जन बोध का ज्ञानशोधन हुआ है। राष्ट्र की घटना से मिलने वाला ज्ञान गंगा की तरह अविरल प्रवाहमान रहता है। आज लॉकडाउन के इस दौर में लोगों ने घर में रहकर राष्ट्र की आराधना की है। सामूहिकता, पड़ोसी भाव, रिस रहे रिश्ते की मजबूती, अपनत्व, आत्मीयता, उदारता, सेवा-भाव को उचित स्थान मिला है। ‘कोई भूखा नहीं रहेगा’ का भाव जगा है। ‘साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय, मैं भी भूखा न रहूं साधु ना भूखा जाय’ का भाव जगा है।

सरकार के आग्रह और नागरिकों के कर्तव्य से संकट की इस घड़ी में नागरिकबोध का जागरण हो रहा है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक आज एक ही जनभावना है ‘मैं भी जीऊं, और सब जियें’। जनश्रद्धा और जनआस्था जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक भारतीय मूलतत्व ने अपना पुनः स्थान प्राप्त किया है। सहिष्णुता, सहानुभूति, संवेदनशीलता और सद्भाव का ऐसा अद्भुत दृश्य भारतीय समाज ने पूर्व में शायद ही देखा हो। जनप्रतिनिधियों ने भी लॉकडाउन के दौरान अपने वास्तविक कर्तव्य को निभा रहे हैं। अब तक जनप्रतिनिधियों से यही अपेक्षा रहती थी कि नाली, नाले-खरंजा और सड़क का निर्माण करवाया जाए। विकास के यही मायने थे। लेकिन आज यह साबित हो गया है कि जनप्रतिनिधि का पहला कर्तव्य है जान-माल की सुरक्षा। जनता और जनप्रतिनिधि दोनों इस आत्मबोध से युक्त हुए हैं।

समाज के सभी वर्गों ने कोरोना महामारी से निपटने और लॉकडाउन की स्थिति से उबरने में अपना योगदान दिया है। लॉकडाउन समस्या के इस काल में पत्रकार, कलाकार, रचनाकार, शिक्षक, समाजसेवी सभी ने अपना योगदान दिया है। घर-घर से समाधान आया है। बच्चों ने अपने-अपने घर से जो संदेश दिया, पूरे राष्ट्र ने देखा। हम सब अपना-अपना राष्ट्रीय कर्तव्य निभा रहे हैं। मुंडन हो, उपनयन हो, विवाह हो, श्राद्ध कर्म हो, हम लोग सभी को फिलहाल स्थगित कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी अपने पूर्वाश्रम पिता के अंतिम दर्शन नहीं कर पाए। उन्होंने राष्ट्र को संदेश दिया कि पुत्रधर्म से बड़ा राष्ट्रधर्म है। यह प्रेरक त्याग है। पूरे देश में इस समय अलग-अलग विभागों के लगभग 1 करोड़ 25 लाख कोरोना योद्धा अगली पंक्ति में कार्यरत हैं। इनमें डॉक्टर्स, अस्पतालकर्मी, पुलिस, सफाईकर्मी आदि शामिल हैं। कोरोना योद्धाओं पर आक्रमण की कुछ अवांछित घटनायें हुई हैं, लेकिन गृह मंत्रालय ने संज्ञान लेकर ऐसे मामलों में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत कड़ी कार्रवाई करने को कहा है।

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों में सख्ती से कार्रवाई की गयी है। सार्वजनिक उपक्रम हो या निजी उपक्रम, सभी ने अपने स्तर से योगदान दिया है। भारतीय रेल ने दवा और खाद्यान्न को देश के कोने-कोने तक पहुंचाया, वहीं रेल डिब्बों को अस्पताल में परिवर्तित किया है। विनिर्माण क्षेत्र में लगे उद्योगों ने मास्क, टेस्ट किट और पर्सनल प्रोटेक्शन इक्यूपमेंट का निर्माण किया। कोरोना महामारी तो बहुराष्ट्रीय त्रासदी है, लेकिन इस त्रासदी ने विशेषकर हम भारतीय को अनेक सीख दी है। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की उदार नीति ने भारत को विश्व में आज एक नयी पहचान दी है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर इस त्रासदी के बीच विश्व के 62 देशों को हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन सहित अनेक दवाओं की सप्लाई हो रही है। विश्व त्रासदी के इस काल में अपने देश का नेतृत्व करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्क देशों और जी-20 देशों (जिसमें विश्व के अग्रणी देश शामिल हैं) की अगुवाई की है। अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ब्राजील जैसे देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न केवल बधाई दी, अपितु भारत का शुक्रिया भी अदा किया। विश्व में कोरोना की त्रासदी विकराल रूप ले चुकी है। कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या विश्व में बढ़कर 25 लाख से अधिक हो गई है, और इसने पौने दो लाख से अधिक लोगों की जान ले ली है।

साथ ही, यह राहत भरी खबर है कि विश्वभर में अब तक कोरोना महामारी से 6.56 लाख लोग ठीक भी हुए हैं। विश्व में अमेरिका की स्थिति सबसे गंभीर है, जहां 8 लाख से अधिक लोग संक्रमित हैं, वहीं 45 हजार से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई है। इटली, फ्रांस, स्पेन और जर्मनी में भी मरने वाले लोगों की संख्या हजारों में है और यह संख्या लगातार बढ़ रही है। जहां तक भारत का प्रश्न है, सबकुछ नियंत्रण में है। कोरोना संक्रमितों की संख्या अब तक लगभग 20 हजार है, जिसमें 4 हजार से अधिक लोग ठीक हो चुके हैं, जबकि 650 से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है और 15 हजार संक्रमितों का अस्पतालों मे उपचार चल रहा है। गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड राज्य पूरी तरह कोरोना मुक्त घोषित हो चुका है। 22 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश और 12 करोड़ आबादी वाले बिहार में कोरोना संक्रमितों की संख्या कम है। पूरे देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या की वृद्धि की गति में लगातार कमी आ रही है। भारत की यह सकारात्मक स्थिति नेतृत्व की अद्भुत शक्ति और नागरिक बोध की सजग कर्तव्यपरायणता का परिणाम है।

ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आजादी की लड़ाई में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अगुवाई की और भारत को आजादी दिलाई। आज कोरोना के बहुराष्ट्रीय त्रासदी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के पारिवारिक मुखिया के रूप में जो भूमिका निभा रहे हैं, उसके प्रति सामूहिक श्रद्धा का ज्वार उमड़ रहा है। भारत इस बहुराष्ट्रीय त्रासदी में न केवल विजय प्राप्त करेगा, अपितु आने वाले समय में विश्व का नेतृत्व भी करेगा। विश्व के कोने-कोने से यह स्वर सुनाई दे रहा है। यह मैं नहीं कह रहा हूं, अमेरिका की एक संस्था ने 1 जनवरी से 14 अप्रैल के बीच इस बात को लेकर एक सर्वे करवाया कि कोरोना महामारी की रोकथाम में विश्व का कौन-सा नेतृत्वकर्ता सबसे आगे है। सर्वे में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार सबसे आगे रहे। साफ है, आज पूरा विश्व मान रहा है कि कोरोना से लड़ाई में वे दुनिया सबसे अधिक प्रभावी हैं।

राजनीति का मुहावरा भी बदलने वाला है कोरोना कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप के बीच जारी लॉकडाउन के साइड इफेक्ट दिखने लगे हैं। जहां एक ओर बीमारी को रोकने की चुनौती है वहीं दूसरी ओर लॉक डाउन से उपजी मुश्किलों से भी निबटना है। इन कठिन हालात के बीच आगे जाकर हमारे देश-समाज-दुनिया की कैसी तस्वीर उभरेगी, इस बारे में निश्चय के साथ अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। अभी तमाम तरह के आकलन किए जा रहे हैं, राजनीतिक दिशा और नैरेटिव के भी बदलने का अनुमान लगाया जा रहा है। हालांकि इन्हीं स्थितियों में भारत जैसे देशों पर इसके सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के कुछ संकेत जरूर मिल रहे हैं। इन्हीं संकेतों के आधार पर एक विचार यह भी सामने आ रहा है कि कोरोना के बाद अमीरी और गरीबी के बीच की बढ़ी हुई खाई राजनीति के मुद्दों नए ढंग से नियोजित करेगी जिसका असर सामाजिक ढांचे से लेकर राजनीतिक समीकरण तक हर कहीं दिख सकता है।

क्यों उठ रही हैं दीवारें : कोरोना के बीच अमीर बनाम गरीब का नैरेटिव अचानक नहीं आया है। राजनीतिक दल अपनी सहूलियत और जरूरत के मुताबिक इस गंभीर मुद्दे को छेड़ने से बाज नहीं आ रहे थे। तमिलनाडु के सीएम पलानीस्वामी ने तो आॅन रेकॉर्ड कह दिया कि कोरोना बीमारी अमीरों की ओर से लाई गई है जिससे गरीब प्रभावित हो रहे हैं। उन्होंने यह तब कहा जब उनके राज्य में इसके कई मरीज आए और लॉकडाउन के बीच गरीबों का जीवन बुरी तरह प्रभावित होने की खबरें आने लगीं। इस बयान को तमिलनाडु के सीएम की ओर से आम लोगों की नाराजगी को कम करके उनसे कनेक्ट करने की एक कोशिश के रूप में देखा गया। मगर बात सिर्फ उनकी नहीं है।

बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने भी राजस्थान के कोटा से छात्रों को उनके घर भेजे जाने का विरोध कर कहीं न कहीं उसी दिशा में संदेश देने की कोशिश की। लॉकडाउन के तुरंत बाद पूरे देश से प्रवासी मजदूरों ने अपने घर जाने की कोशिश की। उनमें कई मजबूर मजदूर तो हजारों किलोमीटर पैदल चलकर घर पहुंचे। सरकार ने उन्हें लाने के लिए अपनी तरफ से कोई खास कोशिश नहीं की। कुछ दिन पहले महाराष्टÑ के बांद्रा में हजारों मजदूर जुटे तो हंगामा भी हुआ। पुलिस की लाठी चली। मजदूरों की मजबूरी भरी कहानी मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक खूब आई। ऐसे में नीतीश कुमार को अहसास हुआ कि अगर वह कोटा के स्टूडेंट्स को लाने के लिए अलग से इंतजाम करते हैं तो इसका सीधा संदेश यह जाएगा कि वह गरीबों की मदद नहीं करना चाहते हैं और सामर्र्थवान लोगों के साथ खड़े हैं। नीतीश सरकार के एक मेंबर ने कहा कि कोटा से स्टूडेंट्स को लाना राजनीतिक और प्रशासनिक दोनों स्तर पर गलत फैसला होता।

छात्रों को न लाने के अपने फैसले पर बिहार सरकार को कोई अफसोस नहीं है। सिर्फ बिहार और तमिलनाडु ही नहीं, सभी राज्य सरकारों को इस बात का अहसास है कि अभी सबसे गरीब लोग सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं और इसलिए राजनीतिक कारणों से भी उनका ध्यान रखते हुए दिखना बेहद जरूरी है। शायद इसीलिए तमाम राज्यों ने लॉक डाउन के बीच गरीबों के लिए ढिलाई की मांग भी की है। फिर भी उनकी मजबूरी भरी दास्तां सामने आती रही है। माना जा रहा है कि लॉकडाउन के बाद उन्हें परेशानियों से निजात दिलाकर दोबारा सामान्य जीवन जीने लायक बनाने के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास करने की जरूरत होगी। दरअसल बीमारी के इस संकट से उबरने के बाद अमीर बनाम गरीब की लकीर गहरी होने की आशंका के पीछे कुछ ठोस वजहें भी हैं। भारत सहित तमाम विकासशील देशों के बारे में जो रिसर्च आधारित आकलन आ रहे हैं उनके मुताबिक बीमारी का कहर करोड़ों ऐसे लोगों को दोबारा गरीबी के दलदल में धकेल देगा जो हाल के वर्षों में विकास की निरंतरता की बदौलत उससे निकल गए थे। यूएन ने पिछले दिनों रिपोर्ट दी जिसके अनुसार 10 करोड़ 40 लाख नए लोग वर्ल्ड बैंक की ओर से तय की गई गरीबी रेखा से नीचे चले जाएंगे।

सवाल सरकार की साख का : मौजूदा हालात पर गौर करें तो देश की 60 प्रतिशत आबादी मतलब लगभग 80 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। अगर संयुक्त राष्टÑ की रिपोर्ट सच हो जाती है तो आने वाले समय में भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोगों की संख्या 90 करोड़ के आंकड़े को पार कर जाएगी। इन गरीब तबके के लोगों के बीच अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने अपनी साख बनाई थी जिसकी बदौलत उसने 2019 में लगातार दूसरी बार चुनावी जीत हासिल की थी। मोदी सरकार ने अपने पहले टर्म में प्रधानमंत्री आवास, मुफ्त शौचालय और रसोई गैस उपलब्ध कराने के लिए उज्ज्वला जैसी योजनाएं शुरू कीं जिसका उन्हें बड़ा सियासी लाभ मिला। उनकी पार्टी को गरीबों के बड़े तबके का वोट मिला।

मोदी सरकार ने दावा किया कि 70 सालों में गरीब जिन बुनियादी सुविधाओं से वंचित रहे, वे सुविधाएं उन्हें मुहैया कराने में वह अपनी पूरी ताकत लगाती रही है। इस तबके के लोगों का बैंक अकाउंट खुलवाना भी इसी कवायद का हिस्सा था। पीएम मोदी ने इन्हीं नीतियों की मदद से गरीबों के रूप में एक बड़ा वोट बैंक बनाया जिसमें जातियों की भी दीवार टूटी है। लेकिन कोरोना संकट ने इसी गरीब तबके को कई कदम पीछे धकेल दिया। अब चुनौती न सिर्फ उन्हें दोबारा सामान्य हालात में लाने की है बल्कि जो अपेक्षा इस सरकार ने बनाई उसे बरकरार रखने की भी है। जानकारों के अनुसार इसका असर कोरोना संकट के समाप्त होने के कुछ महीने बाद दिखने लगेगा। अभी केंद्र सरकार सहित तमाम राज्य सरकारों ने फौरी तौर पर जरूर इन्हें मदद दी है, लेकिन आगे की लड़ाई लंबी है और जो इस लंबी लड़ाई में उन गरीबों के साथ खड़ा होने में जो जितना सफल होगा उसे सियासी प्रीमियम भी उतना ही मिलेगा

प्रेम और करुणा से ही मिलेगी कोरोना जैसी महामारी से मुक्ति

 कोविड-19 या कोरोना वायरस महामारी के कारण एक ऐसा संकट उत्पन्न हुआ है, जिसका अनुभव हमारी पीढ़ी को नहीं था। इससे पहले हममें से किसी ने शायद इस वायरस के बारे में सुना भी नहीं होगा। सुनसान सड़कें, बाजार बंद, स्कूल बंद तथा घरों में बंद जीवन, अपने आप में इसकी कहानी बयां कर रही है। कोरोना वायरस के कारण उत्पन्न हुई आपात स्थितियों का भार सबसे अधिक गरीब एवं वंचित लोगों पर पड़ा है, जिसमें महिलाएं, बच्चे और दिव्यांग जन भी शामिल हैं। हम सभी स्वच्छता, सोशल डिस्टेंसिंग तथा हाथ धोने जैसे उपायों से अवगत हैं, जो संकट की इस घड़ी में हमें संक्रमण से बचायेगा। इन सावधानियों को हमें आने वाले हफ्तों में भी जारी रखना चाहिए। यह हमें तथा हमारे परिवार के साथ-साथ अन्य लोगों की भी कोरोना बीमारी से रक्षा करेगा। संकट के समय आपस में प्रेम एवं करुणा के व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। कोराना वायरस के खिलाफ भारत की लड़ाई की कहानी, उन लोगों की कर्तव्यनिष्ठा और मानव सेवा की कहानी है, जिन्होंने अपने कर्तव्यों का पालन करने हेतु संक्रमित व्यक्तियों, आमलोगों, पड़ोसियों तथा दोस्तों की सेवा के लिए काफी दर्द सहा है एवं जोखिम उठाया है।

हालांकि, इसके अलावा कोरोना वायर ससंक्रमण के संदिग्ध रोगियों, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, डॉक्टरों, नर्सों तथा धार्मिक एवं जातीय समूहों के खिलाफ भेदभाव की भी कहानियां हैं। कोरोना वायरस का डर स्वाभाविक है, क्योंकि यह हमारे लिए नया है। हम इसे पूरी तरह से नहीं समझते हैं। दुनिया के बेहतरीन मस्तिष्क इस बीमारी का उपचार ढ़ूंढने के लिए लगातार कार्य कर रहे हैं, लेकिन जैसे-जैसे कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई चिह्नित हॉटस्पॉट की ओर बढ़ रही है, उन इलाकों के निवासियों के खिलाफ भेदभाव की संभावना बढ़ गयी है। यह कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई को प्रभावित कर सकता है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि कोरोना वायरस एक ऐसी चुनौती है, जिसका धर्म, जाति, सामाजिक समूह या किसी विशेष स्थान से कोई लेना-देना नहीं है। कोई भी जातीय, धार्मिक और सामाजिक समूह इसके प्रभाव से अछूता नहीं है। यह वायरस हम सबके लिए खतरा है और हम सभी को इसके खिलाफ एकजुट होकर लड़ना चाहिए।

कोरोना वायरस पर सफलता पूर्वक काबू पाने के लिए यह आवश्यक है कि हम सहयोग और करुणा का वातावरण बनायें, ताकि कोरोना वायरस के लक्षण दिखने पर लोग जांच करवाने से नहीं डरें तथा स्वास्थ्यकर्मियों को लक्षणों के परीक्षण तथा संपर्क में आये लोगों के बारे में पता लगाने में मदद कर सकें। संकट की इस घड़ी में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए करुणापूर्ण तरीके से किया जाने वाला एक छोटा सा कार्य सभी दूरियों को मिटा देगा। हमें उन लोगों के लिए आवाज उठाना चाहिए जो भेदभाव से जूझ रहे हैं। हमें बुजुर्गों तक आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति एवं उनके लिए दवाओं की खरीद आदि में मदद करनी चाहिए। हमें यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि जब हम कोरोना वायरस से संबंधित सूचनाओं को साझा करें, तो हमें इसकी प्रमाणिकता की पुष्टि जरूर करनी चाहिए। स्वास्थ्य आपातकाल के दौरान तथ्यों की जांच करना एक जीवन-रक्षक अभ्यास है। यह भी महत्वपूर्ण है कि वर्तमान चुनौती का सामना करने के लिए हम अपने स्वयं के मानसिक स्वास्थ्य का भी ध्यान रखें। लॉकडाउन उन लोगों से जुड़ने का एक अच्छा समय है, जिनसे हमने लंबे समय से संपर्क नहीं किया है।

मैं यहां दोहराना चाहूंगा कि सतर्क और सावधान रहकर हम स्वास्थ्यकर्मियों को उनके कार्य बेहतर तरीके से करने में मदद कर सकते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि स्वास्थ्यकर्मी ही कोरोना वायरस बीमारी की पहचान और इसका उपचार कर सकते हैं। इसलिए लक्षण देख कर खुद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से परहेज करना चाहिए। यदि हमें खुद के और दूसरों के अंदर कोरोना वायरस का लक्षण दिखता है, तो हमें तुरंत मदद लेनी चाहिए। यह भी याद रखना चाहिए कि कोरोना वायरस को किसी चमत्कारिक उपायों से ठीक नहीं किया जा सकता है। हैंडवाशिंग और सोशल डिस्टेंसिंग सबसे बड़े सुरक्षात्मक उपाय हैं। अंत में यही कहूंगा कि कोरोना वायरस भेदभाव नहीं करता है, लेकिन रोगियों एवं संदिग्धों के साथ भेदभाव इसके प्रसार की संभावना को और बढ़ाता है। यह मुश्किल समय है, लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि हम एकजुट रहकर इसका मुकाबला कर सकते हैं।

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